गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें भगवान कैसे मिलेंजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....
अपने पिताजीकी बातें
विक्रम संवत् १९७२ (सन् १९१५) की बात है-पिताजीने पूछा बीमारी मिटेगी या नहीं, मैंने कहा मालूम नहीं है। पिताजीने कहा तुझे मालूम तो है, परन्तु तू बताता नहीं है। तुमने हनुमान गोयन्दकाको जो बात बतायी थी, वैसे ही हुई, मैं और कोई बात नहीं जानना चाहता, केवल यही जानना चाहता हूँ कि बीमारी मिटेगी या नहीं। उनके इस प्रकार करुणाभावसे कहनेसे मुझे फुरणा हुई कि यह बीमारी मिट जायगी। मैंने उनसे बता दिया, फिर वह बीमारी मिट गयी। लगभग बारह महीने बाद पिताजी बद्रीनारायण गये, वहाँ मंदाग्नि हो गयी। फिर यही बात पूछी कि बीमारी मिटेगी या नहीं, तब मैंने कहा कि मुझे पता भी नहीं है एवं पूछना भी नहीं चाहिये। तब उन्होंने मेरी माँजीसे कहा कि तू पूछ। माँजीके पूछनेपर मैंने बताया कि यह जाननेमें हित नहीं है, क्योंकि फिर जो सेवा करते हैं वह नहीं हो सकेगी। पिताजीसे भी कहा कि आप पूछते हैं तो मुझे बड़ा संकोच होता है, इसमें कोई लाभ नहीं है। फिर सेवा कम हो जायगी। पिताजीने कहा कि मैं यही जानना चाहता हूँ कि यदि शरीर नहीं रहे तो साधन तेज करूं। मैंने कहा कि साधन तो तेज करना ही चाहिये। उन्होंने फिर पूछा, तब मैंने कहा कि आपका शरीर नहीं रहेगा। फिर उन्होंने कहा कि मैं 'हरे राम०' मन्त्रका जप करना चाहता हूँ, मुझे विश्वास है कि तू कह देगा तो मैं वर्ष-दो-वर्ष जी सकता हूँ। मैंने कहा यह बात नहीं कहनी चाहिये। मैं जानता हूँ कि मैं यदि यह बात कह दूँगा तो मेरी बात झूठ होगी। दवाई-पानीकी खूब चेष्टा करनी चाहिये। कोशिश वही रखनी चाहिये, जिस प्रकार बीमारी ठीक हो। यह बात मैंने माँजीके आग्रहसे बतायी थी। उन्होंने कहा कि मेरी इच्छा केवल भजनके लिये थी, अब किसी तरह ऐसा नहीं हो सकता तो मेरी मृत्यु तेरी उपस्थितिमें होनी चाहिये। एक रातकी बात है मैंने उनसे कहा-सो जाइये, उन्होंने कहा-कहीं मृत्यु हो जायगी तो ? बहुत कहनेपर मेरेपर भार देकर सोये। मैं जागता रहा, फिर माँजीको प्रात:काल समझाया। उन्हें जगा दिया कि आप मेरे कहनेसे सोये थे, अब आपकी मृत्यु शीघ्र ही होगी। मैंने सोनेकी जिम्मेदारी ली थी, अब सावधान कर देता हूँ भगवान्का स्मरण करें।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥
(गीता ८।१३)
जो पुरुष 'ॐ' इस एक अक्षररूप ब्रह्मको उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्मका चिन्तन करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है।
उन्हें इसी श्लोकका अभ्यास बताया तथा कहा कि इसी अर्थका ध्यान करें। उन्होंने यह श्लोक कहा, स्पष्ट उच्चारण नहीं हुआ।
मैंने उनसे कहा कि सावधान रहना चाहिये। दो दिन पहले उनसे पूछनेपर उन्होंने कहा-मेरे आनन्द-ही-आनन्द है। अन्त समयमें बात करनेकी बहुत शक्ति नहीं रही। उन्होंने मेरे मामाजीसे कहा-इसे साधारण भांजा मत समझना, यह साक्षात् भगवान् है, उद्धार करने आया है। मेरी माँको कहा-तू चिन्ता मत करिये, जब ऐसा पुरुष पास है तब उद्धारमें क्या कमी है। मेरे आनन्दका कोई ठिकाना नहीं है, इस अवस्थामें मैं इसके सामने जाता हूँ, मुझे प्रसन्नता है। दो दिन पहले बालूपर उतार लिया था, फिर पलंगपर सुला दिया, फिर जिस दिन शरीर गया, उस दिन नीचे उतार लिया। कीर्तन करते रहे। मैं बार-बार चेताता रहा कि भगवान्की स्मृति हो रही है न। तीन दिन पहलेसे ऐसी प्रसन्नता हुई जैसे ब्रह्मकी प्राप्ति हो गयी हो। उन्होंने कहा-एक आनन्द-ही-आनन्द दीख रहा है, और कोई वस्तु है ही नहीं। उनकी दृष्टिमें वही परमात्माकी प्राप्ति थी। स्वभावसिद्ध आनन्द दीखता था, कभी उपनिषद्, कभी गीता, कभी नामकीर्तन सुनाता। शरीरकी सेवा माँजी करती, मैं कोई सेवा चाहता तो वे करने नहीं देते, इतनी श्रद्धा रहती। पानी भी पिलाता तो कहते कि तेरी माँको बुला दे। प्राण जायें तो तुझे मेरे पास रहना चाहिये।
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